12/02/2010

"दर्द का दरिया " काव्य संग्रह विमोचन"

"दर्द का दरिया"
(काव्य संग्रह )ISBN 978-81-908201-5-8

मूल्य : 200 रुपये प्रथम संस्करण : 2010 प्रकाशक : अखिल भारतीय कवयित्री सम्मेलन
आवरण कल्पना: डॉ. लारी आज़ाद
भाषा : हिंदी और उर्दू

"अखिल भारतीय कवयित्री सम्मेलन के छठे अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में 23 - 30 November 2010 को उज़्बेकिस्तान की राजधानी "ताशकंत" में मेरे दुसरे काव्य संग्रह "दर्द का दरिया" का विमोचन DR. Lari Azad जी के हाथो संपन हुआ. आज ए.आई. पी.सी के गौरवशाली आश्रय के अंतर्गत मेरे दुसरे काव्य संग्रह का दो भाषाओँ हिंदी और उर्दू में एक साथ प्रकाशित होना किसी महान उपलब्धि से कम नहीं है.





























"Woman of the East " का प्रशस्ति पत्र Prof (DR.) Lari Azad और Dr Shobhna Jain जी से प्राप्त करते हुए









“ विशेष आभार जो विरह के रंग के हमराही बने”

मेरे पहले काव्य संग्रह " विरह के रंग" को शिवना प्रकाशन के आदरणीय पंकज सुबीर जी (भाई जी ) ने जो एक रौशनी से भरी राह दिखाई उसका आभार किन शब्दों मै व्यक्त करूं कुछ भी समझ नहीं आ रहा, जो रंग, रूप, नये आयाम , नया विस्तार दिया , दुनिया मै एक पहचान दी, आज ढूंढे से आभार व्यक्त करने को शब्द नहीं मिल रहे.
आभार ब्लाग जगत के उन सभी आदरणीय साथियों का जिन्होंने "विरह के रंग" की समीक्षा अपने ब्लॉग पर की और मुझे सम्मान दिया.

" प्रकाश सिंह अर्श" , “सुरेंदर कुमार अभिन्न" , " अरविन्द मिश्र जी" , " सतीश सक्सेना जी" , " फिरदोस जी" (स्टार न्यूज़ एजिंसी), "रविरतलामी जी" और

आदरणीय पी.सी. मुद्गल जी का जिनका ब्लॉग लेखन "ताऊ रामपुरिया" के नाम से है, जिन्होंने वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता - २०१० के सभी कांस्य सम्मान विजेताओं को मेरी काव्यकृति "विरह के रंग" की एक प्रति इनाम स्वरूप भेंट की.

आभारी हूँ ब्लागजगत के सभी माननीय जनों के आशीर्वाद और प्रोत्साहन के लिए जिनके सहयोग से मेरे दुसरे काव्य संग्रह का जन्म हुआ.



http://dreamstocometrue.blogspot.com/2010/12/blog-post.html

11/15/2010

"इश्क की इबादत "




"इश्क की इबादत "

बर्फीली पहाड़ियों से उठ कर
अधखुली आँखों से झांकती
भोर की निष्पक्ष किरणों से
कुनमुनाता है ठहरा सागर
नर्म घास की अंगड़ाइयों से
महकने लगती है फिजायें
धीमी गति से चुपचाप फिर
कहीं हवाएं लेती हैं करवटें
यूँ लगता है .....
कायनात की आगोश में सिमटा
पवित्र सौंदर्य का दिलकश मंजर
लिख रहा हो
धरती के अलसाये बदन पे
इश्क की एक नई इबादत

10/27/2010

"नसीब"


"नसीब"


कुछ सितारे
मचल के जिस पहर
रात के हुस्न पे दस्तक दें
निगोड़ी चांदनी भी लजाकर
समुंदर की बाँहों में आ सिमटे
हवाओं की सर्द ओढ़नी
बिखरे दरख्तों के शानों पे
उस वक़्त तू चाँद बन
फलक की सीढ़ी से फिसल जाना
चुपके से मेरी हथेलियों पर
वो नसीब लिख जाना
जिसकी चाहत में मैंने
चंद साँसों का जखीरा
जिस्म के सन्नाटे में
छुपा रखा है ...

10/11/2010

"हथेली पे उतारा हमने"

एक खुबसूरत रूहानी से मंजर की कल्पना करते हुए, उस चाँद को जो न जाने कितनी दूर है मगर हर पल उतना ही करीब होने का एहसास करा जाता है , अगर अपने सामने आपने पास अपनी हथेलियों की कम्पन में महसूस कीया जाए तो कैसा लगता होगा ना. इस दिलनशीन पल की कल्पना को मेरे साथ यहाँ सुनिए.....


"हथेली पे उतारा हमने"

रात भर चाँद को चुपके से
हथेली पे उतारा हमने
कभी माथे पे टिकाया
कभी कंगन पे सजाया
आँचल में टांक के मौसम की तरह
अपने अक्स को संवारा हमने

रात भर चाँद को चुपके से
हथेली पे उतारा हमने
सुना उसकी तन्हाई का सबब
कही अपनी दास्तान भी
तेरे होटों की जुम्बिश की तरह
पहरों दिया सहारा हमने

रात भर चाँद को चुपके से
हथेली पे उतारा हमने
अपने अश्को से बनाके
मोहब्बत का हँसीं ताजमहल
तेरी यादों की करवटों की तरह
यूँ हीं एक टक निहारा हमने

रात भर चाँद को चुपके से
हथेली पे उतारा हमने


9/21/2010

"हाँ तुम मेरी धडकनों में महफूज रह सकती हो"

"हाँ तुम मेरी धडकनों में महफूज रह सकती हो"

"आदरणीय सलीम प्रदीप जी की पुस्तक " महबूबा से महबूब तक " तक पढने का मौका मिला , और उस पर अपने कुछ विचार व्यक्त किये, जिन्हें "युध्भूमि" के ताजा अंक " उफ़! ये मोहब्बत " में स्थान मिला, अपने इस गौरव और सम्मान को आप सभी से बाँट रही हूँ"





8/30/2010

"कभी यूँ भी हो "


"कभी यूँ भी हो "

कभी यूँ भी हो
देखूं तुम्हे ओस में भीगे हुए
रेशमी किरणों के साए तले सारी रात


चुन लूँ तुम्हारी सिहरन को
हथेलियों में थाम तुम्हारा हाथ

महसूस कर लूँ तुम्हारे होठों पे बिखरी
मोतियों की कशमश को
अपनी पलकों के आस पास

छु लूँ तुम्हारे साँसों की उष्णता
रुपहले स्वप्नों के साथ साथ

ओढ़ लूँ एहसास की मखमली चादर
जिसमे हो तुम्हरी स्निग्धता का ताप

कभी यूँ भी हो .....
देखूं तुम्हे ओस में भीगे हुए
रेशमी किरणों के साए तले सारी रात


8/02/2010

"तुम्हारा है "

" कुछ आँखों की गुफ्तगू है और उनमे सिमटे जज़्बात हैं.....
आँखे जो कायनात का नज़ारा करवाती हैं..."
मीरतकी मीर के इस शेर के साथ एक छोटी सी पुरानी कविता "तुम्हारा है" को यहाँ सुनिए.......
"मीर उन नीम बाज आँखों में
सारी मस्ती शराब की सी है"




"तुम्हारा है "

जो भी है वो तुम्हारा ...

यह दर्द कसक दीवानापन ...
यह रोज़ की बेचैनी उलझन ,

यह दुनिया से उकताया हुआ मन...
यह जागती आँखें रातों में,

तनहाई में मचलन और तड़पन ..........
ये आंसू और बेचैन सा तन ,

सीने की दुखन आँखों की जलन ,
विरह के गीत ग़ज़ल यह भजन,

सब कुछ तो मेरे जीने का सहारा है ........
जो भी है वो तुम्हारा है

7/19/2010

"चाँद मुझे लौटा दो ना "

"कुछ शिकवो के मौसम हैं और कुछ आवारा से ख्यालातों की बेख्याली भी है , इन्ही शब्दों के जखीरे के साथ एक कविता "चाँद मुझे लौटा दो ना " को यहाँ सुनियेगा..... "




"चाँद मुझे लौटा दो ना "

चंदा से झरती
झिलमिल रश्मियों के बीच
एक अधूरी मखमली सी
ख्वाइश का सुनहरा बदन
होले से सुलगा दो ना

इन पलकों में जो ठिठकी है
उस सुबह को अपनी आहट से
एक बार जरा अलसा दो ना

बेचैन उमंगो का दरिया
पल पल अंगडाई लेता है
आकर फिर सहला दो ना
छु कर के अपनी सांसो से
मेरे हिस्से का चाँद कभी
मुझको भी लौटा दो ना

7/05/2010

" सिरहाने पे आ मिलते हैं "


" सिरहाने पे आ मिलते हैं "

उजालों के बदन पर अक्सर 

उम्मीदों के आँचल जलते हैं

जाने कितनी ख्वाइशों के छाले

पल पल भरते पिघलते हैं

बिखर जाते हैं पल में छिटक कर

हथेलियों से सब्र के जुगनू

दिल में कुछ बेचैन समंदर

बिन आहट करवट बदलते हैं

ठिठकी हुई रात की सरगोशी में

फूट फूट बहता है दरिया-ए-जज्बा

शिकवे आंसुओं की कलाई थाम

रोज मेरे सिरहाने पे आ मिलते हैं

(इस कविता को यहाँ मेरी आवाज में सुनिये..... ) 

6/14/2010

""नर्म लिहाफ" "


"नर्म लिहाफ"

सियाह रात का एक कतरा जब
आँखों के बेचैन दरिया की
कशमश से उलझने लगा
बस वही एक शख्स अचानक
मेरे सिराहने पे मुझसे आ के मिला

मै ठिठक कर उसके एहसास को
छुती टटोलती आँचल में छुपा
रूह के तहखाने में सहेज लेती हूँ
कुछ हसरतें नर्म लिहाफ में
दुबके मचलने लगती हैं
जब वही एक शख्स अचानक
मेरे सिराहने पे मुझसे आ के मिला 

कुछ मजबूरियों की पगडंडियाँ
जो मेरे शाने पे उभर आती हैं,
अपने ही यकीन के स्पर्श की
सुगबुगाहट से हट
चाँद के साथ मेरी हथेलियों में
चुपके चुपके से सिमटने लगती है
सच वही बस वही एक शख्स जब अचानक
मेरे सिराहने पे मुझसे आ के मिल

5/31/2010

वक़्त की गर्द से परे

"वक़्त की गर्द से परे"

वक़्त की गर्द से परे


एक पल तुमको सुन लेती

तारो की आगोश में छिप पर

अक्स तुम्हारा मन में धर लेती

प्रेम ठिठोली चंदा की अठखेली

संग तुम्हारे अंक में भर लेती..

एक पल तुमको सुन लेती.....

नदिया की धारा जुगनु तारा

प्रीत से बोझिल आलम सारा

शीत पवन की तन्हाई को

संग तुम्हारे सुर में सुर देती

एक पल तुमको सुन लेती....

5/11/2010

"सीहोर में कुछ अनमोल और अविस्मरनीय पलो के एहसास. 8.05.2010...."

"एक ख्वाब जो मेरी इन आँखों ने देखा भी नहीं था, मगर सच हो गया "















पद्मश्री बशीर बद्र , पद्मश्री बेकल उत्साही , डॉ राहत इन्दोरी , नुसरत मेहंदी , शकील जमाली , खुरशीद हैदर , अख्तर ग्वालियरी , शाकिर रजा, सिकन्दर हयात गड़बड़ , अतहर सिरोंजी , सुलेमान मजाज , जिया राना, सुश्री राना जेबा , फारुक अंजुम, काजी मालिक नवेद , ताजुद्दीन ताज, मोनिका हठीला मेजर संजय चतुर्वेदी , डॉ आज़म इन महान हस्तियों के बीच पुस्तक विमोचन संपन्न "सीहोर (भोपाल) में पद्मश्री बशीर बद्र जी के साथ कुछ ऐतिहासिक पल.......





















"सीहोर (भोपाल) में मेरे प्रथम काव्य संग्रह " विरह के रंग" का विमोचन सुकवि मोहन राय की स्मृति में आयोजित अखिल भारतीय मुशायरे में पद्मश्री बशीर बद्र जी, पद्मश्री बेकल उत्साही जी, नुसरत मेहँदी जी , एवं मुख्य अतिथि विधायक रमेश सक्सेना के हाथो संपन हुआ."

























































" शिवना प्रकाशन एवं भोजक परिवार भुज द्वारा सम्मान के अहम यादगार पल "































" कुछ खुशनुमा लम्हे , चंद ब्लोगर साथियों के साथ जिन्होंने उस मंच पर जाने का हौसला दिया..."
""आदरणीय पंकज सुबीर जी का जितना आभार प्रकट किया जाये वो कम रहेगा.....मेरे काव्य संग्रह "विरह के रंग " को इतना बड़ा मंच इतनी महान हस्तियों के बीच प्रदान किया उसके लिए दिल से आभारी रहूंगी......""
सुकवि मोहन राय की स्मृति को संजोने वाले उनके साथी बधाई के पात्र हैं : रमेश सक्सेना
सुकवि मोहन राय की स्मृति में अखिल भारतीय मुशायरा, पुरस्कार तथा पुस्तक विमोचन समारोह संपन्न
सीहोर () सीहोर की अग्रणी साहित्य प्रकाशन संस्था शिवना प्रकाशन तथा मप्र उर्दू अकादमी के संयुक्त तत्वावधान में सुकवि मोहन राय की स्मृति में अखिल भारतीय मुशायरे का आयोजन किया गया ।

कार्यक्रम में शिवना प्रकाशन की नई पुस्तकों मोनिका हठीला की एक खुशबू टहलती रही, सीमा गुप्ता की विरह के रंग, मेजर संजय चतुर्वेदी की चाँद पर चाँदनी नहीं होती तथा डॉ. सुधा ओम ढींगरा की पुस्तक धूप से रूठी चाँदनी का विमोचन किया गया साथ ही डॉ आजम को सुकवि मोहन राय स्मृति पुरस्कार प्रदान किया गया ।
स्थानीय कुइया गार्डन में आयोजित कार्यक्रम का शुभारंभ मुख्य अतिथि विधायक श्री रमेश सक्सेना, सुकवि स्व. मोहन राय की धर्मपत्नी श्रीमती शशिकला राय सहित पद्मश्री बशीर बद्र, पद्मश्री बेकल उत्साही, डॉ. राहत इन्दौरी तथा मध्यप्रदेश उर्दू अकादमी की सचिव नुसरत मेहदी सहित सभी शायरों ने माँ सरस्वती की प्रतिमा पर माल्यार्पण तथा सुकवि स्व. मोहन राय के चित्र पर पुष्पाँजलि तथा दीप प्रावलित करके किया । सभी अतिथियों का स्वागत संयोजक श्री राजकुमार गुप्ता द्वारा तथा आयोजन प्रमुख श्री पुरुषोत्तम कुइया ने किया ।

शिवना प्रकाशन की नई पुस्तकों का विमोचन सभी अतिथियों द्वारा किया गया । विमोचन के पश्चात तीनों उपस्थित लेखकों मोनिका हठीला, सीमा गुप्ता तथा संजय चतुर्वेदी का शिवना प्रकाशन तथा भोजक परिवार भुज द्वारा शाल श्रीफल तथा स्मृति चिन्ह भेंट कर किया गया ।

सुकवि स्व. मोहन राय स्मृति पुरस्कार की घोषणा तथा पुरस्कृत होने वाले कवि डॉ. आजम का संक्षिप्त परिचय चयन समिति की अध्यक्ष तथा स्थानीय महाविद्यालय में हिंदी की प्रोफेसर डॉ. श्रीमती पुष्पा दुबे द्वारा दिया गया। पंडित शैलेष तिवारी के स्वस्ति वाचन के बीच अतिथियों द्वारा डॉ. आाम को मंगल तिलक कर, शाल श्रीफल, सम्मान पत्र तथा स्मृति चिन्ह भेंटकर सुकवि स्व. मोहन राय स्मृति पुरस्कार प्रदान किया गया।

मुख्य अतिथि विधायक श्री रमेश सक्सेना जी ने इस अवसर पर बोलते हुए कहा कि धन्य हैं शिवना के साथी गण जो कि अपने साथी की स्मृति में इतना भव्य आयोजन कर रहे हैं । श्री सक्सेना ने शिवना प्रकाशन के आयोजन की भूरि भूरि प्रशंसा की । पद्मश्री डॉ. बशीर बद्र ने कहा कि सीहोर आना हमेशा से ही मेरे लिये आकर्षण का विषय रहता है क्योंकि यहां पर मुझे बहुत प्यार मिलता हैनुसरत मेहदी ने अपने संबोधन में कहा कि शिवना प्रकाशन के साथियों ने सीहोर में जो भव्य आयोजन रचा है वैसा कम ही देखने को मिलता है शिवना प्रकाशन ने सीहोर में आज इतिहास रच दिया है

कार्यक्र्रम के सूत्रधार द्वय रमेश हठीला तथा पंकज सुबीर ने सभी अतिथियों को शिवना प्रकाशन की ओर से स्मृति चिन्ह प्रदान किये गये साथ ही कार्यक्रम संचालक श्री प्रदीप एस चौहान को सभी विशिष्ट अतिथियों द्वारा प्रतीक चिन्ह भेंट किया गया । कार्यक्रम के द्वितीय चरण में अखिल भारतीय मुशायरे का आयोजन किया गया शायरों का स्वागत बैज, पुष्पमाला तथा स्मृति चिन्ह प्रदान कर श्री सोनू ठाकुर, विक्की कौशल, सनी गौस्वामी, सुधीर मालवीय, नवेद खान, प्रवीण विश्वकर्मा, प्रकाश अर्श, वीनस केसरी, अंकित सफर, रविकांत पांडे आदि ने किया
पद्मश्री बेकल उत्साही, डॉ. राहत इन्दौरी, नुसरत मेहदी, शकील जमाली, खुरशीद हैदर, अख्तर ग्वालियरी, शाकिर रजा, सिकन्दर हयात गड़बड़, अतहर सिरोंजी, सुलेमान मजाा, जिया राना, सुश्री राना जेबा, फारुक अंजुम, काजी मलिक नवेद, ताजुद्दीन ताज, मोनिका हठीला, मेजर संजय चतुर्वेदी, सीमा गुप्ता, डॉ. आाम जैसे शायरों की रचनाओं का कुइया गार्डन में उपस्थित श्रोता रात तीन बजे तक आनंद लेते रहे । डॉ. राहत इन्दौरी, बेकल उत्साही, खुर्शीद हैदर जैसे शायरों की गजलों का श्रोताओं ने खूब आनंद लिया । श्रोताओं से खचाखच भरे मैदान पर देर रात तक काव्य रस की वर्षा होती रही । श्रोताओं ने अपने मनपसंद शायरों से खूब फरमाइश कर करके गजलें सुनीं । कार्यक्रम संचालन प्रदीप एस चौहान ने किया अंत में आभार शिवना प्रकाशन के पंकज सुबीर ने किया ।
http://prosingh.blogspot.com/2010/05/blog-post_30.html

4/12/2010

"मुझको पुकारे "


"मुझको पुकारे"

झिलमिलाते दूर तक उजले सितारे
और चाँद का आंचल थाम के देखो
चल रहे नदिया के किनारे
पत्तो की खन खन कुछ कहना चाहे
अलसाई पवन ले जब दरख्तों के सहारे
और रात की बाँहों में मचले हैं देखो
जगमगाते जुगनू ये सारे
धुन्धले से साये अनजानी राहे
कुछ गुनगुनाते ये अधभुत नजारे
और दूर गगन में चुपके से देखो
आहट किसी की "मुझको पुकारे"
झिलमिलाते दूर तक उजले सितारे
और चाँद का आंचल थाम के देखो
चल रहे नदिया के किनारे

3/23/2010

"विरह के रंग (काव्य संग्रह)"




"विरह के रंग "


"(काव्य संग्रह) ISBN: 978-81-909734-1-०"


आज शिवना प्रकाशन के आदरणीय पंकज सुबीर जी के मार्गदर्शन के तहत "विरह के रंग"के साथ अपने पहले काव्य संग्रह को साकार रूप में देख हर्ष उल्लास और एक बैचनी का अनुभव कर रही हूँ.
" विरह का क्या रंग होता है ये मैं नहीं जानता लेकिन इतना ज़रूर है की है की ये रंगहीन भी नहीं होता और यह रंग ऑंखें नहीं दिल देखती हैं . " सहसा आज एक पाठक की मेरी एक कविता पर लिखी ये पंक्तियाँ मेरे मन मे कौंध गयी.......कितना सत्य है इन शब्दों में ......
"विरह जीवन का एक हिस्सा है एक अटूट हिस्सा जिसका कोई रंग नहीं सिर्फ उसे महसूस किया जाता है और जो पिघल कर एक उन्मुक्त गीत या कविता में ढल जाता है. "विरह का रंग" न जाने कितने मन की आँखों ने देखा होगा उसे जिया होगा, और वही एहसास जैसे लफ्जो से निकल कर कागज़ पर तड़प कर बिखर गये. कभी प्रकति की सुन्दरता ने हाथ में कलम थमा दी और कभी अंधियारी रातो ने एक रौशनी की खातिर दिल की शमा जला दी.


मुझे अपने आप को बहुत ज्यादा तो अभिव्यक्त करना नही आता बस इतना जानती हूँ " ना सुर है ना ताल है बस भाव हैं और जूनून है " लिखने का . और ये जूनून हिंद युग्म और ब्लॉगजगत से जुड़ने के बाद और भी बढ़ गया . ब्लागजगत के माननीय जनों के आशीर्वाद और अपने माता पिता के प्रोत्साहन ने कुछ हट कर भी लिखने को प्रेरित किया जैसे " बंजारा मन" "मन की अभिलाषा " "खाबो के आँगन" "मायाजाल" "फ़िर उसी शाख पर", "शब्दों की वादियाँ" जब कश्ती लेकर उतरोगे ", 'मधुर एहसास , "झील को दर्पण बना"" ये कुछ ऐसे रचनाएँ है जो दुःख दर्द से परे खुले आसमान मे उड़ते निश्च्छल बेपरवाह पक्षी के जैसी हैं....जिनका जन्म आप सब की प्रेरणा से ही हुआ........"अपने से बडो को आदर और छोटो को स्नेह के साथ मै इस ब्लॉगजगत के सभी सदस्यों के प्रति अपना आभार वयक्त करना चाहूंगी .
वरिष्ट कवि तथा सुप्रसिद्ध गीतकार श्रद्धेय श्री रमेश हठीला जी का आभार शब्दों में व्यक्त करना मेरे लिए असंभव है , उन्होंने जिस प्रकार से मेरी कविताओं का भाव पकड़ कर भूमिका लिखी है वो अद्युत है. श्री हठीला जी ने मेरी कविताओं को नये और व्यापक अर्थ प्रदान किये उनकी लेखनी को मेरा प्रणाम. शिवना प्रकाशन की टीम वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय श्री नारायण कासट जी , वरिष्ट कवी श्री हरिओम शर्मा दाऊ जी का आभार जिन्होंने संग्रह के लिए कविताओं के चयन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

आभार युवा डिजाइनर सुरेंद्र ठाकुर जी का जिन्होंने मेरी भावनाओ तथा पुस्तक के शीर्षक विरह के रंग को बहुत अच्छा स्वरूप देकर पुस्तक का आवरण प्रष्ट डिजाइन किया और
सनी गोस्वामी जी का जिन्होंने पुस्तक की आन्तरिक साज सज्जा तथा कम्पोजिंग का काम बहुत ही सुन्दरता से किया. आभार मुद्रण की प्रक्रिया से जुड़े श्री सुधीर मालवीय जी था मुद्रक द्रष्टि का भी जिन्होंने मेरी कल्पनाओ को कागज पर साकार किया.


अंत में फिर से आदरणीय पंकज सुबीर जी का बेहद आभार जिनके आर्शीवाद और सहयोग के बिना शायद ये काव्य संग्रह य सपना ही रह जाता.... ये काव्य रचना सिर्फ एक शुरुआत है , और आप सभी के सुझाव और प्रतिक्रिया मेरी आगे की मंजिल के साथी और पथ प्रदर्शक बनेगे.......
वैदेही की तड़प, उर्मिला की पीर, और मांडवी की छटपटाहट : विरह के रंग (काव्य संग्रह), समीक्षा श्री रमेश हठीला

मूल्य : 250 रुपये प्रथम संस्करण : 2010 प्रकाशक : शिवना प्रकाशन
http://shivnaprakashan.blogspot.com/2010/03/blog-post_22.html
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http://prosingh.blogspot.com/2010/03/blog-post_24.html



http://satish-saxena.blogspot.com/2010/04/blog-post_06.html


http://www.starnewsagency.in/2010/04/blog-post_16.html


http://www.punjabkesari.in/epapermain.aspx?queryed=16&subedcode=3&eddate=08/11/2010

2/08/2010

"शब्द भी रोने लगे "

"शब्द भी रोने लगे "


निष्प्राण हृदय के ज़ीने पे,
अनुभूतियों के मानचित्र
विद्रोह कर
अपना अस्तित्व संजोने लगे
विवश हो,
अभिव्यक्तियों के काफिले भी
साथ होने लगे......
अश्को के नगीने
बिखर गये
दिल के मलाल
अनुबंधित हो कर
आक्रोश की तलहटी में
एकत्रित होने लगे,
"तब "
भावाग्नि के उच्च ताप से
"शब्द भी रोने लगे ..."

1/25/2010

"बेवफाई को एक नया नाम "

"बेवफाई को एक नया नाम "

मन की आहटों का
एक नाजुक सफर था
तेरे मेरे दरमियाँ ......


ना मुझे चाँद तारो की ख्वाईश
ना तुम्हारी कोई फरमाईश

न मुझ पे तेरी निगाहों का पहरा
न तुझ पे मेरी कोई ज़ोर आजमाईश

दोनों के पास ही तो
उन्मुक्त आसमान था ....

तेरी बेरुखी की खामोश अदा ने
मान हानि का जिक्र क्या किया
यूँ लगा , "बेवफाई को "
एक नया नाम मिल गया ....



1/11/2010

"वक़्त की कोख में नहीं..."

"वक़्त की कोख में नहीं..."

शाम ढले ही
ख़ामोशी के तहखानों में
कुछ वादों के उड़ते से गुब्बार
समेट लेते हैं मेरे आस्तीत्व को
फिर अनजानी ख्वाइशों की आंखे
कतरा कतरा सिहरने लगती हैं
और रात के आंचल की उदासी
सूनेपन के कोहरे में सिमट
अपनी घायल सांसो से उलझती
ओस के सीलेपन से खीज कर
युगों लम्बे पहरों में ढलने लगती है
तब मीलों भर का एकांत
तेरी विमुखता की क्यारियों से
अपना बेजार दामन फैला
अधीरता के दायरों का स्पर्श पा
ढूंढ़ लाता है कुछ अस्फुट स्वर .....
" तुम्हे भूल पाऊं कभी,
वो पल वक़्त की कोख में नहीं..."