शाम ढले ही ख़ामोशी के तहखानों में कुछ वादों के उड़ते से गुब्बार समेट लेते हैं मेरे आस्तीत्व को फिर अनजानी ख्वाइशों की आंखे कतरा कतरा सिहरने लगती हैं और रात के आंचल की उदासी सूनेपन के कोहरे में सिमट अपनी घायल सांसो से उलझती ओस के सीलेपन से खीज कर युगों लम्बे पहरों में ढलने लगती है तब मीलों भर का एकांत तेरी विमुखता की क्यारियों से अपना बेजार दामन फैला अधीरता के दायरों का स्पर्श पा ढूंढ़ लाता है कुछ अस्फुट स्वर ..... " तुम्हे भूल पाऊं कभी, वो पल वक़्त की कोख में नहीं..."