"काफी है "
वफ़ा का मेरी अब और क्या हसीं इनाम मिले मुझको,
जिन्दगी भर दगाबाजी का सिर पे एक इल्जाम काफी है.
बनके दीवार दुनिया के निशाने खंजर से बचाया था,
होठ सी के नाम को भी राजे दिल मे छुपाया था,
उसी महबूब के हाथों यूं नामे-ऐ -बदनाम काफी है ...
यादों मे जागकर जिनकी रात भर आँखों को जलाते थे ,
सोच कर पल पल उनकी बात होश तक भी गवाते थे ,
मुकम-ऐ- मोह्हब्त मे मिली तन्हाई का एहसान काफी है….
कभी लम्बी लम्बी मुलाकतें, और सर्द वो चांदनी रातें,
चाहत से भरे नगमे अब वो अफसाने अधुरें है ,
जीने को सिर्फ़ जहर –ऐ - जुदाई का ये भी अंजाम काफी है
24 comments:
चाहत से भरे नगमे अब वो अफसाने अधुरें है ,
जीने को सिर्फ़ जहर –ऐ - जुदाई का ये भी अंजाम काफी है
फ़िर से कहूंगा ..शब्द नही हैं मेरे पास तारीफ़ के लिए ... !
बस अद्भुत रचना .............................
शुभकामनाएं !
बहुत खूब पढ़कर वो लाईने याद आ गयीं - 'सिर पे मेरे ये इल्जाम तो है'
वफ़ा का मेरी अब और क्या हसीं इनाम मिले मुझको,
जिन्दगी भर दगाबाजी का सिर पे एक इल्जाम काफी है.
क्या बात कह दी सीमा जी आपने बहोत खूब ,बहोत ही उम्दा लेखन और गहरी थिंकिंग पढ़ने को मिला आपको ढेरो बधाई ,, बहोत बढ़िया .......
बहुत ख़ूब!
वफ़ा का मेरी अब और क्या हसीं इनाम मिले मुझको,
जिन्दगी भर दगाबाजी का सिर पे एक इल्जाम काफी है.--bahut achchee rachna likhi hai -shikwa - shikayton magar dard se bhara afsana
बहुत बेहतरीन ख़याल पेश किया सीमाजी आपने हमेशा की तरह. और आपके चित्र तो नज़्ज़ारा-ऐ-सुख़न हैं ही. आपकी पोस्टें ऐसी ही लाजवाब आती रहें.
waah man moh liya
छा गये आप तो..बहुत उम्दा.
वाह सीमा जी बेहतरीन नज्म पेश की है आपने
साहिर लुधियानवी का शेर याद आ गया
तुम मेरे लिए अब कोई इल्जाम न ढूंढो
चाहा था तुम्हें, इक यही इल्जाम काफी है
वफ़ा का मेरी अब और क्या हसीं इनाम मिले मुझको,
जिन्दगी भर दगाबाजी का सिर पे एक इल्जाम काफी है.
सीमा जी
सोज़ मैं डूबी हुई गज़ल
दिल के कहीं बहुत करीब से आने वाली आवाज़
बेहतरीन शायरी
बनके दीवार दुनिया के निशाने खंजर से बचाया था,
होठ सी के नाम को भी राजे दिल मे छुपाया था,
लाजवाब ! बहुत शुभकामनाएं !
बहुत बढीया कविता।
"जिन्दगी भर दगाबाजी का सिर पे एक इल्जाम काफी है"
बहूत अच्छा है। और भी अच्छा।
बहुत सशक्त अभिव्यक्ति ! धन्यवाद !
बहुत सुंदर-
वफ़ा का मेरी अब और क्या हसीं इनाम मिले मुझको,
जिन्दगी भर दगाबाजी का सिर पे एक इल्जाम काफी है.
बनके दीवार दुनिया के निशाने खंजर से बचाया था,
होठ सी के नाम को भी राजे दिल मे छुपाया था,
उसी महबूब के हाथों यूं नामे-ऐ -बदनाम काफी है ...बहुत सुंदर शब्दों से सजी इस रचना के लिए बधाई स्वीकार करें ब्लॉग जगत से लंबे समय तक गायब रहने के लिए माफी चाहता हूँ अब वापिस उसी कलम के साथ मौजूद हूँ .
होंट सी के नाम को भी राजे दिल मे छुपाया था,
क्या बात है, बहुत सुंदर, लाजवाब.
धन्यवाद
वफ़ा का इनाम ,दगावाजी का इल्जाम /-खामोशी का सिला बदनामी /मकाम-ऐ -मोहब्बत में तन्हाई का अहसान और जुदाई का जहर कुल मिलाकर ऐसा बन गया है जहाँ पीडा के अनुभूति है ,एक गम है ++फिर वही शाम ,वोही गम वोही तन्हाई है दिल को समझाने .....मगर यहाँ तो समझाने भी कोई नहीं आरहा है =बहुत गम्भ्रीर रचना
bahut badhiya prastuti.badhiya prayaas hai . dhanyawad.
आपकी किवता में िजंदगी के यथाथॆ को प्रभावशाली ढंग से अिभव्यक्त िकया गया है । अच्छा िलखा है आपने ।
http://www.ashokvichar.blogspot.com
तारीफ को शब्द नही हैं मेरे पास ..बहुत सुंदर .पहली बार इधर का रुख किया है ..लाजवाब लिखती हैं आप.
आपका रचना संसार यूँ ही फलता फूलता रहे ,निरंतर अविरल ...........गंभीर लेखन और जिंदगी के बहुत करीब से चुने हुए अल्फाज़ ऐसा संगम बहुत कम देखने को मिलता है ....लिखते रहिएगा ..बहुत संजीवनी है ये ...सिर्फ़ दर्द ही नही
achha laga..bhawnao ko aapne jis tarah net ke panno par ukera hai ..wakai ye kabiletarif hain...likhte rahiye...
वफ़ा का मेरी अब और क्या हसीं इनाम मिले मुझको,
जिन्दगी भर दगाबाजी का सिर पे एक इल्जाम काफी है.
..........जो मिल गया वो तो इक अहसान ही है तुझपर....
जो नहीं मिला,जिन्दगी का ये अहसान तुझपे बाकी है....
..........सीमा जी आप की रचनाशीलता हमपर सर चढ़-कर बोलती है.....और अद्भुत तस्वीरों से लबरेज़ आपकी हर रचना बोलती हुई-सी ही लगती है......
sach main bahut umda likha hai"kafi hi"
too good
dher sari subhkamnaye
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