"धरातल की थालियाँ"
नैनो के पलक द्वार पर
नैनो के पलक द्वार पर
दस्तक देती रही सिसकियाँ
कांपते अधर बोल ना पाए
अंगारे बन धधकती रही हिचकियाँ
अंगारे बन धधकती रही हिचकियाँ
तेरे दर्श का मेघ आकर
प्रत्यक्ष में बरसा नहीं
शून्य के प्रचंड प्रहार से
बुझ गयी आशाओं की दिप्तियाँ
यथार्थ के धरातल की थालियाँ
शोर कर चोकन्नी हो गयी
मिलन ना तुमसे हो सका
http://latestswargvibha.blog.co.in/2009/09/21/सà¥à¤®à¤¾-à¤à¥à¤ªà¥à¤¤à¤¾-2/
43 comments:
कवयित्री की वही प्राणेर व्यथा ! अब एक निर्मम सत्य बन चुकी है !
सुन्दर कविता के लिए बधाई!
हिन्दी-दिवस की शुभकामनाएँ!
हिंदी दिवस की प्रात: इससे बड़ा सौभाग्य क्या हो सकता है की हिंदी की विख्यात कवियित्री की रचना पर सुबह सुबह पढ़ कर टिप्पणी देने का अवसर मिला है
हिंदी दिवस की मंगल कामनाएं
तेरे दर्श का मेघ आकर
प्रत्यक्ष में बरसा नहीं
शून्य के प्रचंड प्रहार से
बुझ गयी आशाओं की दिप्तियाँ
......भावशून्य वातावरण को सोचने पर मजबूर कर देने वाली पंक्तिया/
शब्दों के मोती भावनाओं के अमूल्य धागे से पिरोकर हार बनाकर जब प्रस्तुत किया जाता है तो वह कवी हृदय की अनुपम कृति बन जाती है
पुनश्च: हिंदी दिवस की अनेकानेक बधाइयाँ
बहुत बढ़िया
हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामना . हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार का संकल्प लें .
हमेशा की तरह बहुत सुन्दर रचना. आभार.
सीमा जी वैसे तो आपकी हर रचना अद्भुत होती है। जब भी आपकी नई रचना पढो तो लगता है कि ये लाजवाब है मगर हर रचना ऐसे ही लगती है ये विरह की सुन्दरतम् अभिव्यक्ति ह किसी एक दो लाईन का कहूँगी तो पूरी रचना से अन्याय होगा। लाजवाब रचना के लिये बधाई
नायाब अभिव्यक्ति, शुभकामनाएं.
रामराम.
यथार्थ के धरातल की थालियाँ
शोर कर चोकन्नी हो गयी
मिलन ना तुमसे हो सका
बेडियों का सेतु बनी न कोई युक्तियाँ
waah dardko bayan bhi kiya hai khubsurati se,dil tak mehsus kar gaya,sunder.
एकदम अनूठी सी कविता है... जैसे क्षितिज से भी दूर कोई गा रहा हो...
तस्वीर भी सुंदर है...
मीत
नैनो के पलक द्वार पर
दस्तक देती रही सिसकियाँ
कांपते अधर बोल ना पाए
अंगारे बन धधकती रही हिचकियाँ......
BAHOOT ही SHASHAKT रचना हिंदी दिवस पर, दिल में UTARTI HUYEE रचना ........... न मिल PAANE की VYATHA का SAAKSHAAT CHITRAN है इस रचना में .......... AAKA लिखा हमेशा BAHOOT देर तक HALCHAL MACHAATA RAHTA है दिल में .......... लाजवाब लिखा है ..........
एक बहुत सुंदर कविता, ओर चित्र भी बेमिशाल.
धन्यवाद
"मिलन ना तुमसे हो सका" व्यथा का सटीक चित्रण !
नैनो के पलक द्वार पर
दस्तक देती रही सिसकियाँ
कांपते अधर बोल ना पाए
अंगारे बन धधकती रही हिचकियाँ ...kisi ke intzar ki peedha kavita ki siskiya banke nikli....behad khoobsurat kavita....
vahi manohari shabd...
or vahi sundar rachna...
हिन्दी दिवस की शुभकामनाएँ। कविता बहुत सुन्दर है।
सीमाजी
आपकी इन्ह लाईनो मे मात्र शब्द ही नही पुरे "धरातल को देख लिया। आपके एक एक शब्द मेरे दिल की गहराईयो को छू रहे थे। ऐसा महसुस होता है कि आपकी कलम से अनमोल शब्द-रत्नो की झडी ही लग गई। बहूत ही सुन्दर भावो से अपनी आवाज को पिरोया है।
आपकी लेखनी से मै काफी प्रभावित हुआ।
पहेली - 7 का हल, श्री रतन सिंहजी शेखावतजी का परिचय
हॉ मै हिदी हू भारत माता की बिन्दी हू
हिंदी दिवस है मै दकियानूसी वाली बात नहीं करुगा
अच्छी कविता... भावमय... बधाई..
hi
it is really nice.
i once agin said tht like ur writing ur image slection is really fantastic.
Rakesh kaushik
शानदार अभिव्यक्ति .. हैपी ब्लॉगिंग
नैनो के पलक द्वार पर
दस्तक देती रही सिसकियाँ
कांपते अधर बोल ना पाए
अंगारे बन धधकती रही हिचकियाँ ....
waaqai mein siskiyan hamesha hamare saath hi hotin hain .....jeeti hain....martin hain.... ab jab siskiyan ghutan mein tabdeel htin hain..... to hichkiyon mein badal jaatin hain....
bahut sunder kavita...
इतनी बेहतरीन रचना..और इतनी देर से आया. आनन्द आया अभिव्यक्ति का यह रुप देखकर..भावपूर्ण.
मुक्तछन्द में यह रचना और बेहतर हो सकती थी ।
bahut hi kuhbsurat rachna, isse agee likhne ko kuch baccha hi nhi, sabbhi mahanubhavo ne apni partikirya pehle hi apne sunder sabdo me viyakt karei hahi ki agee likhna muskil lag raha hai...........
badhiya savikar kare
abi aapke ek dusare blog se idhar ka rukh kiya/ aour ynha bhi vahi jaadoo/
naino ke palak dvaar par..abhi tak ashruo ke sandarbh me padhha thaa, aapne siskiyo ko navaaza aour mujhe yah pryog bhaa gayaa. hichliya angaare ban gai ho to kalpanaa ki jaa sakti he ki adhar ke bol ki kampan kitani maarmik hogi, shoonya ke prachand prahaar se bujh gai aashaao ki disaaye../
aapne sachmuch in shbdo ke jariye meri kalpnao ko saakaar roop dekar chitrit kar diya/ yathaartha ka dharatal aour usaki thaaliya..ek gazab ka pryog he, kya behtreen rachna....
mugdh ho gayaa ji me/
wow !!
bus aur kuch nahi keh sakta itni badhiya rachna ke liye....
...creative manch se aaya tha dekhne ki kisne itne prize jeete hain..
badhai aapke blog pe to inamoo ki jhadi lagi hui hai !!
aapka jawab nahin................gre8!
regard
anguthachhap
18 sep '09
eve 5:42 pm
(ye khas lamha jab anguthachhap aapse mukhatib hua)
ye inaam ka kya chakkar hai......bataiyega zara....
नैनो के पलक द्वार पर
दस्तक देती रही सिसकियाँ
कांपते अधर बोल ना पाए
अंगारे बन धधकती रही हिचकियाँ
Bahut khob seemaji
you are welcome to my blog
nice expression
सीमा जी.....मैं फिर वही कहूंगा....वही एकरसता.....वही बातें.....वही कविता...बेशक आप दिनों-दिनों आधुनिक महादेवी बनने के चरण में हो क्या....किन्तु सिर्फ विरह की महादेवी मत बनो भई.......!!अगले चरण में प्रवेश भी करो...!!
बहुत सुंदर असह्य वेदना की अभिव्यक्ति
सुन्दर रचना...
अदभुत सोच और सरस अभिव्यक्ति, यही आपकी पहचान है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
सुन्दर रचना. देर से ही सही, बधाई तो बनती ही है.......
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com
Ateev sundar blogs hain..pahlee baar dekha...in diggajon ke baad mai kahun to kya kahun?
Dee gayee tasveer sahit har taraf sundarta bikhree hai..( paanee parse jaatee tahnee)
इष्टमित्रों और परिवार सहित आपको, दशहरे की घणी रामराम.
रामराम.
आपके विरह गीतो की लडियो को जब जब मै पढा करता हू मुझे ऐसा लगता है कि गुलाब की बिखरती हुई पन्खुडिया अपने अस्तित्व के लिये मानो लड रही है, आशाओ के दीप की जलती हुई बाती तेल के बिना जैसे फफक रही है, सामाजिक व्यवस्था से सन्घर्ष करती किसी प्रेयसी की विरह वेदनाये अपने प्रिय की यादो को समेटी हुई अपने जीवन मे किसी पतझड की वजह से आयी शून्यता से हर क्षण जैसे विजय का सन्कल्प लिये रण क्षेत्र मे डटी हुई है.
पर उस प्रिय की यही कुछ बाते उसे सान्त्वना देती होन्गी - "कुछ तो उसकी भी मजबूरिया रही होन्गी , वरना कोई इस तरह बेवफा नही होता".
मुझे अपनी कविता " प्रवन्चना" की कुछ पन्क्तिया उस काल्पनिक नायक के लिये जैसे याद हो आयी, जिसमे वह भी कुछ इस तरह कहता होगा-
एक तेरी याद मे हम,
अपनी अनमोल जिन्दगी खो चुके है,
झरझर बहते आन्सुओ की धार मे,
अपनी मह्त्वाकान्क्षाओ को कब का धो चुके है!
और कितना रुलाओगे ऐ सनम हमको,
तेरी याद मे हम ना जाने कितना रो चुके है !
उसे ना तुम प्रवन्चना समझो,
वह तो इत्तफाक था, जो अब हम किसी का हो चुके है.
बहुत सुन्दर रचना है आपकी, वैसे भी मै आपकी विरह रचना मुझे बहुत भाती है.
सादर
राकेश
शून्य के प्रचंड प्रहार से
बुझ गयी आशाओं की दिप्तियाँ
मिलन ना तुमसे हो सका
बेडियों का सेतु बनी न कोई युक्तियाँ..
वाह क्या वेदना दे गई आप.....
कुछ अलग सी , खूबसूरत सांकेतिक अभियक्ति ! शुभकामनायें सीमा जी !
बुरा मत मानिए सीमा जी, पर इस कविता पर आपके चरण छूने को जी चाहता है। ऐसे शब्द आपकी महानता को दर्शाते हैं। मालिक आपकी उम्र दराज़ करे। आप इतने इतने दिन ब्लाग से दूर न रहा करें। खलती है आपकी यह एबसेंस।
बहुत कठिन कठिन शब्दो को आपने कविता मे पिरोया है
जय हो। बवालजी की शिकायत बाजिब है।
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