1/12/2009

"विमुखता"

"विमुखता"

खामोशी तेरे रुखसार की
तेज़ाब बन मस्तिष्क पर झरने लगी
जलने लगा धैर्य का नभ मेरा
और आश्वाशन की धरा गलने लगी
तुमसे वियोग का घाव दिल में
करुण चीत्कार अनंत करने लगा
सम्भावनाये भी अब मिलन की
आहत हुई और ज़ार ज़ार मरने लगी
था पाप कोई उस जनम का या
कर्म अभिशप्त हो फलिभुत हुआ
अपेक्षा की कलंकित कोख में
विमुखता की वेदना पलने लगी....






35 comments:

प्रदीप मानोरिया said...

बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति बहुत गहरे भावः भरी है आपकी कविता

Vinay said...

सहृदय लिखी गयी बहुत अच्छी कविता

---मेरा पृष्ठ
गुलाबी कोंपलें

Anonymous said...

दावानल की आग की जलन लिए ये शब्द, दर्द का ऐसा चित्र उकेरते हैं की लगता है सचमुच में कोई तेजाब दिल को छूकर गुजर गया हो .
तुमसे वियोग का घाव दिल में
करुण चीत्कार अनंत करने लगा
सम्भावनाये भी अब मिलन की
आहत हुई और ज़ार ज़ार मरने लगी
था पाप कोई उस जनम का या
कर्म अभिशप्त हो फलिभुत हुआ
अपेक्षा की कलंकित कोख में
विमुखता की वेदना पलने लगी....
यूँ लगता है है जैसे वेदना स्वतः मूर्त रूप धर चीत्कार कर रही हो .

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत मार्मिक और गहन पीडा की अभिव्यक्ति. लाजवाब रचना है.

रामराम.

जितेन्द़ भगत said...

खामोशी तेरे रुखसार की
तेज़ाब बन मस्तिष्क पर झरने लगी
सुंदर कल्‍पना।

बवाल said...

दिल को झिंझोड़ती है, ये वेदना तुम्हारी
फटते हुए जिगर की, लो दाद लो हमारी

Unknown said...

बहुत मार्मिक ......bahut hi acchi kavita hai....

Rakesh Kaushik said...

hi,
it's really very painfull.
but beautiful as well.

Alpana Verma said...

'अपेक्षा की कलंकित कोख में
विमुखता की वेदना पलने लगी...'
इतना दर्द भरा है इन पंक्तियों में कि हर शब्द में उस की पीडा महसूस की जा सकती है.
लगता है..
जैसे दिल से जार जार आंसू बह रहे हों...!
भावभरी रचना सीमा जी.

मीत said...

था पाप कोई उस जनम का या
कर्म अभिशप्त हो फलिभुत हुआ
अपेक्षा की कलंकित कोख में
विमुखता की वेदना पलने लगी....
मर्म झलकता है...
---मीत

Anonymous said...

Dear Seema
This one is such a master piece..
Really you done it superbly this time (as every time)

Great Going Buddy
In particular, I loved these rhymes inside this poetry..
Greattt.....

संगीता पुरी said...

dard ki sundar abhivyakti.....badhai.

Gyan Dutt Pandey said...

यह वेदना, यह दर्द आखिर है ही क्यों?

Mohinder56 said...

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति... शब्दो चयन व भाव अद्वितीय हैं

makrand said...

कर्म अभिशप्त हो फलिभुत हुआ
अपेक्षा की कलंकित कोख में
विमुखता की वेदना पलने लगी....

poem with the heart
timing of word is like
napolian bonapart

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

उत्कृष्ट रचना, मोतियों की तरह चुने हुये शब्द.

डॉ .अनुराग said...

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...

mehek said...

simply awesome

Udan Tashtari said...

था पाप कोई उस जनम का या
कर्म अभिशप्त हो फलिभुत हुआ
अपेक्षा की कलंकित कोख में
विमुखता की वेदना पलने लगी....


--भीतर तक भेदती एक मार्मिक अभिव्यक्ति.

"अर्श" said...

दिल से लिखी गई एक बेहतरीन कविता ... बहोत बधाई आपको सीमा जी...


अर्श

महेंद्र मिश्र.... said...

गहन पीडा की मार्मिक अभिव्यक्ति...

Arvind Mishra said...

कर्म अभिशप्त हो फलीभूत हुआ
अद्भुत भाव !

नीरज गोस्वामी said...

लाजवाब शब्द और सुंदर भाव....ये ही तो विशेषता है आपकी...वाह...
नीरज

सचिन मिश्रा said...

Bahut badiya.

राज भाटिय़ा said...

बहुत ही गहरे भाव लिये, यह आप की कविता.
धन्यवाद

रोमेंद्र सागर said...

बहुत खूब!! आपका यूँ संवेदनाओं के स्तर पर भावनाओं को उकेरना अच्छा लगा !

बरसों पहले लिखी अपनी एक ग़ज़ल का मुखडा याद आ गया.....
" कुछ दर्द को मिलाया , कुछ खाके ग़म मिला दी
बस इस तरह खुदा ने , मेरी ज़िंदगी बना दी !!

तेरी दुआ से मैंने पाई यह ज़िन्दगी है,
मेरे खैरख्वाह तुने, यह कैसी बद्दुआ दी !!

Vinay said...

आपका सहयोग चाहूँगा कि मेरे नये ब्लाग के बारे में आपके मित्र भी जाने,

ब्लागिंग या अंतरजाल तकनीक से सम्बंधित कोई प्रश्न है अवश्य अवगत करायें
तकनीक दृष्टा/Tech Prevue

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

वियोग श्रंगार से परिपूर्ण एक मार्मिक रचना।

मोहन वशिष्‍ठ said...

सम्भावनाये भी अब मिलन की
आहत हुई और ज़ार ज़ार मरने लगी


बेहतरीन रचना है लेकिन दर्द भरी कि हर एक शब्‍द को दर्द में डुबोकर एक माला में पिरोया है

अवाम said...

बहुत ही सुंदर और खुबसूरत रचना है मैम आपकी. नव वर्ष की शुभकामनायें. नया साल आपको शुभ हो, मंगलमय हो.

Anonymous said...

दिल को भेदने वाली. एकदम मर्मस्पर्शी. आभार.

महेंद्र मिश्र.... said...

मकर संक्राति पर्व की हार्दिक शुभकामना और बधाई .

!!अक्षय-मन!! said...

अपेक्षा की कलंकित कोख में
विमुखता की वेदना पलने लगी...
विश्वास था इसलिए अपेक्षा ने जन्म लिया......
वैसे कभी कभी तो ख़ुद पर भी भरोसा नही होता....
बहुत ही गमदीदा लिखा है........




अक्षय-मन

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

अच्छी है..........मगर पिछली ही कई कविताओं का विस्तार-सी..........सीमा जी ख़ुद को और भी अन्य रसों में अभिव्यक्त करें ना....!!

Mukesh Garg said...

bahut hi behtrin rachna likhi hai.

supab



badhiyan