चाँद मुझे लौटा दो ना
चंदा से झरती
झिलमिल रश्मियों के बीच
एक अधूरी मखमली सी
ख्वाइश का सुनहरा बदन
होले से सुलगा दो ना
इन पलकों में जो ठिठकी है
उस सुबह को अपनी आहट से
एक बार जरा अलसा दो ना
बेचैन उमंगो का दरिया
पल पल अंगडाई लेता है
आकर फिर सहला दो ना
छु कर के अपनी सांसो से
मेरे हिस्से का चाँद कभी
मुझको भी लौटा दो ना
छु कर के अपनी सांसो से
ReplyDeleteमेरे हिस्से का चाँद कभी
मुझको भी लौटा दो ना
बहुत ही खुबसुरत अल्फाज बेहतरीन रचना, शुभकामनाएँ.
रामराम.
बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteनई पोस्ट मैं
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल गुरुवार (24-10-2013) को "ब्लॉग प्रसारण : अंक 155" पर लिंक की गयी है,कृपया पधारे.वहाँ आपका स्वागत है.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteBAHUT HI SUNDER RACHNA, BADHAIYA
ReplyDeleteLajawab....
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