10/22/2013

चाँद मुझे लौटा दो ना

चाँद मुझे लौटा दो ना 

चंदा से झरती 
झिलमिल रश्मियों के बीच
एक अधूरी मखमली सी 
ख्वाइश का सुनहरा बदन
होले से सुलगा दो ना 
इन पलकों में जो ठिठकी है
उस सुबह को अपनी आहट से
एक बार जरा अलसा दो ना
बेचैन उमंगो का दरिया
पल पल अंगडाई लेता है
आकर फिर सहला दो ना
छु कर के अपनी सांसो से 
मेरे हिस्से का चाँद कभी 
मुझको भी लौटा दो ना

8 comments:

ताऊ रामपुरिया said...

छु कर के अपनी सांसो से
मेरे हिस्से का चाँद कभी
मुझको भी लौटा दो ना

बहुत ही खुबसुरत अल्फाज बेहतरीन रचना, शुभकामनाएँ.


रामराम.

कालीपद "प्रसाद" said...

बहुत सुन्दर रचना
नई पोस्ट मैं

Rajendra kumar said...

आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल गुरुवार (24-10-2013) को "ब्लॉग प्रसारण : अंक 155" पर लिंक की गयी है,कृपया पधारे.वहाँ आपका स्वागत है.

Pratibha Verma said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

Mukesh Garg said...

BAHUT HI SUNDER RACHNA, BADHAIYA

Anonymous said...

uljhe hea man ki uljhane
tum aoge to sulajh jayega.
na jaane esa kyon lagta he
tumse jab v milta hu......


sunil kumar sonu

Anonymous said...

uljhe hea man ki uljhane
tum aoge to sulajh jayega.
na jaane esa kyon lagta he
tumse jab v milta hu......


sunil kumar sonu

Tamasha-E-Zindagi said...

Lajawab....